"यह आकाश, पृथ्वी, पानी, हवा, ग्रह, तारे एवं हम यह सब आये कहा से है ?"
"घूम क्यों रहे है ?"
"संतुलित क्यों है ? कैसे हे ?"
"हम क्यों है ?"
" इत्तेफ़ाक़ है या किसी कारन से है ? या फिर किसी सुव्यवस्था का हिस्सा ? कौन है जो इस सृष्टि को रंग, रूप और आकार दे रहा है ?"
हमारी बुद्धि ही है जो हमें ज्यादा और ज्यादा तर्क और तथ्यों के समुद्र में डुबो चली है।
इंसान क्या कर लेगा..... कुछ भी कर ले दूसरी दुनिया तो नहीं ही बना लेगा , और चलो बना भी लिया तो फिर क्या ? फिर क्या प्राप्त हो जायेगा दुनिया बना के ।
"यहाँ इस सृष्टि को न तुजसे फर्क पड़ता है कोई, न मुजसे..... यहाँ तो हम कठपुतली भी नहीं है। भला (भगवान?) तुजसे क्या करावा लेगा ? तू कर ही क्या सकता है ?
इस सृष्टि की सब से बड़ी कमाल यह है कि हम झिंदा है।क्यों झिंदा है ? पता नहीं ? यहाँ दिक्कत तो तब हो जाती है जब पता चले की, झिंदा होने में तेरा कोई रोल ही नहीं है।
मेरी बात किसी को सही लगे किसी को गलत, सब के लिए सही नहीं बन सकता। में कैसे बन सकता हु ? और तू भी सब के लिए सही कँहा है ? और अगर तू सब के लिए सही बन पाया है तो तेरे पास कुल मिला के 25 लोगो से ज्यादा लोग भी कहा है ? वही 25 लोग तो तेरी सृष्टि को शक्ल दे रहे है। में सब के लिए सही नहीं बन सकता। और बनु भी क्यों?
तू भी मत बनना। बनेगा तो तू मिट जायेगा। मेरी बात समजने के लिए तुजे वो पता होना चाहिए जो मुझे पता लगा है। और इन काले शब्दों से तो तू वही मतलब निकाल सकेगा जिसका ज्ञान तेरे दिमाग में है। तेरी बुद्धि ही है जो तुजे कठपुतली बनाये बेठी है।
"घूम क्यों रहे है ?"
"संतुलित क्यों है ? कैसे हे ?"
"हम क्यों है ?"
" इत्तेफ़ाक़ है या किसी कारन से है ? या फिर किसी सुव्यवस्था का हिस्सा ? कौन है जो इस सृष्टि को रंग, रूप और आकार दे रहा है ?"
हमारी बुद्धि ही है जो हमें ज्यादा और ज्यादा तर्क और तथ्यों के समुद्र में डुबो चली है।
इंसान क्या कर लेगा..... कुछ भी कर ले दूसरी दुनिया तो नहीं ही बना लेगा , और चलो बना भी लिया तो फिर क्या ? फिर क्या प्राप्त हो जायेगा दुनिया बना के ।
"यहाँ इस सृष्टि को न तुजसे फर्क पड़ता है कोई, न मुजसे..... यहाँ तो हम कठपुतली भी नहीं है। भला (भगवान?) तुजसे क्या करावा लेगा ? तू कर ही क्या सकता है ?
इस सृष्टि की सब से बड़ी कमाल यह है कि हम झिंदा है।क्यों झिंदा है ? पता नहीं ? यहाँ दिक्कत तो तब हो जाती है जब पता चले की, झिंदा होने में तेरा कोई रोल ही नहीं है।
मेरी बात किसी को सही लगे किसी को गलत, सब के लिए सही नहीं बन सकता। में कैसे बन सकता हु ? और तू भी सब के लिए सही कँहा है ? और अगर तू सब के लिए सही बन पाया है तो तेरे पास कुल मिला के 25 लोगो से ज्यादा लोग भी कहा है ? वही 25 लोग तो तेरी सृष्टि को शक्ल दे रहे है। में सब के लिए सही नहीं बन सकता। और बनु भी क्यों?
तू भी मत बनना। बनेगा तो तू मिट जायेगा। मेरी बात समजने के लिए तुजे वो पता होना चाहिए जो मुझे पता लगा है। और इन काले शब्दों से तो तू वही मतलब निकाल सकेगा जिसका ज्ञान तेरे दिमाग में है। तेरी बुद्धि ही है जो तुजे कठपुतली बनाये बेठी है।
इसी बात से शरुआत होती है "अनुवेध" की
- कौशिक धंधुकिया
(संस्थापक स्वास्थ्य प्रेमी परिवार)
शोधक-आलोंम चिकित्सा पद्धति (अत्याधुनिक चिकित्सा)
When I get angry after then next second I can cool down on my self I can construction on other subject
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