प्रश्न : लोग अक्सर मुजसे पूछते है की यह अनुवेध आपने कैसे प्राप्त किआ आपको किसने यह सिखाया ?
हर बार में बाध्य हु। में हर बात नहीं बता सकता या यह कहे की काफी हद तक असमर्थ भी। माफ़ करे। यह तो गूंगे का गुड हे। खाने पर ही तो गुड का आस्वादन हो और तो कोई रास्ता भी तो नहीं। और मुझे नहीं पता की अगर मैंने बता भी दिया तो क्या होगा? कहा गया है की कहने मात्र से मैंने जिन अनुभवो को पाया है वो खो जाएँगे। और जो मैंने अनुभव किया है वह क्षण जीवन के मेरे लिए बहोत कीमती है इस बात को तो में भी अस्वीकार नहीं कर सकता।
यह सब कह देने मात्र मे भी मुझे कोई आपत्ति नहीं क्यूंकी मेरी बुद्धिमता मे यह बात कभी ठीक ना बैठी की कहने मात्र से कुछ विलीन हो जा सकता है कुछ गवाया भी जा सकता हे। पर मैंने भी कई सारी कथाये-कहानिया इस विषय में बचपन से सुनी है की ऐसा भी हो सकता है इसी कारण से मेरा मन सदा डरता रहा है की कही मेरे कह देने मात्र से यह जो मुझे मिला है चला जाये तो भारी गड़बड़ हो जानी हे। में बचपन से ही बहोत संवेदनशील रहा हु और यह तो में अपने अनुभव से मजबूती के साथ कह सकता हु की संवेदनशील लोग ज़्यादातर डरपोक एवं जिद्दी किस्म के होते ही है। इस बात को की में भी ऐसा ही कुछ महसूस करता हु यह कहने में मुझे कोई लज्जा नही है। क्योकि यह भी विज्ञान मान चूका है की संवेदनशील लोग ही रचनात्मक एवं सृजनात्मक प्रवृति के हो सकते है। जितना ज्यादा संवेदनशील आदमी उतना ही ज्यादा सृजनात्मक हो सकता है। और तुमने भी तो जाना ही हे की बच्चो सा संवेदनशील और सृजनात्मक और किसी को भी तुमने न जाना होगा। में बड़ा ही भावुक किस्म का आदमी हु। में बिलकुल किसी भी काम आनेवाली बात को, लोगो को फायदा पहोंचाने वाली बात को छिपा कर नहीं रख सकता। और रखना भी तो क्यौं? मे नहीं तो कोई और सही। कुदरत तो माध्यम बनाकर इस बात को,अपने इस सृजन को और हसीन बनाने को उत्सुक हे, तो में ही क्यौं न इस सृजन के कार्य का भागी ना बनु? मेरी बचपन से एक कमजोरी रही है में मुझे ज्ञात या अनुभवित घटनाओ को अन्य के प्रति उद्घोषित किए बिना उन्हे लाभान्वित किए बिना इन सारी बातों को बांटे बिना नहीं रह सकता। इसीलिए “अनुवेध” की प्राप्ति के बाद में बड़ी मुसीबत में फस गया था। में ख़ामोश रहने लगा था इसी डर से की कही यह मेरे मुह से किसी के सामने निकल ही न जाये। कई दिनों तक में साधना में लीन रहेने की कोशिश में लगा रहा। मंत्रजाप में लीन रहने लगा। और यकीन करो मेरे पास और कोई रास्ता भी नहीं रह गया था। यह बात बडी स्पष्ट थी की मुझे भगवान, भक्ति, अगरबत्ती, प्राथना, आरती और मंत्रजाप, साधना एवं ध्यान इत्तर बातो से बढ़ी ही चीड़ रही है। मुझे यह सब बड़ा ही बचकाना लगा है। और “अनुवेध” मेरे साथ घटित हुआ यही मेरे लिए सानन्दाश्चर्य है। तो मंत्रजाप में मे डूब सकू इतनी लायकाट तो मेरी थी भी नहीं न मुझे समझ आता था की क्या और किस तरह से करना है। पर कैसे भी करके मेने लोगो से दूर जाने की कोशीशे शरु कर दी। क्यौंकी भूल मात्र से भी मे किसी के समक्ष बोल देना नहीं चाहता था। क्यौंकी में बहोत खुश ही नहीं डरा हुआ भी था और डर और अचंभेसे सम्मिलित आदमी सब से पहले आसपास किसी को खोजने की कोशिश जरुर करता है की किसी को तो में बता ही दू की बस अब छुटकारा ही हो इस परिस्थिति से। में निजाद पा सकू इस झंझट से। शुरू शुरू में मैंने भी ऐसा ही प्रयत्न करना चाहा था पर मेरे पास सही सही शब्द नहीं थे लोगो को समजाने के लिए। या यह कहू की शायद शब्दो मे नहीं तोला जा सकता था मेरे इन अनुभवो को। पर तभी मुझे ज्ञात हुआ की जिन कुछ व्यक्तिओ के बारे में मे सोच रहा था उन लोगो को कोई खास फिक्र भी न रही होगी। वो लोग तो इसी सोचमे डूबे हुए थे की जितना भी सिखा जा सकता है बस सीख ले इस आदमी से। और बड़ा जटका लगा मुझे। मे भी किस हद तक लालायित था उनके बारे मे सोचने को।
लेकीन यह भी अच्छा ही हुआ और इसी घटना की वजह से संपर्क में रहने के लिए इस्तेमाल होने वाले सारे संचार माध्यमो के इस्तेमाल से परे रहना मैंने शरु कर दिया। में दावे से कह सकता हु की यह मेरे जीवन के सब से कठिन निर्णयोंमे से एक रह चुका हे। क्यौंकी जो भी कुछ करीबी लोग जो मुझे नजदीक से जानते है वो इस बात को बड़े ही अच्छे से जानते है की में दो चीजो के बिना बिलकुल नहीं रह सकता। एक है मेरी पुस्तके और दूसरा मेरे मोबाइल फोन। चाहे आप इसे आदत ही कह ले। मुझे कोई खास तकलीफ नहीं है क्योकि में इससे भी आनंद का अनुभव करता था। मुझे न तो मंत्रो के जाप करने में कोई खास दिलचस्पी रही है न किसी शाश्त्रो में निहित योगिक विज्ञान को समजने की। वैसे भी यह सभी बहोत ही थका देने वाली एवं कठिन प्रक्रियाए मालूम होती हे।
पर अब मेरे साथ जो घटित हो रहा था में मजबूर था की में इसे समजू और पहली बार मुझे पछतावा हो रहा था की काश मैंने धार्मिक क्रियाकर्मों से दूरी न बनाए रखी होती तो मुझे कुछ न कुछ तो समज में आता। अंततः सिर्फ ये भी की यह सब हो क्या रहा है। क्योकि मेरी समज में कुछ नहीं आ रहा था। थोडा बहोत जो समज पा रहा था वो यह था की जो कुछ भी घट रहा हे वह कुछ सामान्य तो नहीं ही हो रहा हे। और मेरे पास कोई खास लोग भी तो नहीं थे जिनसे इस विषय के बारे में कोई सलाह ले सकु। या विचार विमर्श कर सकु। पर इन सारी घटनाओ के घटित होने के समय एक आदमी सदा मेंरे साथ रहा था।
एक बड़ा ही अद्भुत आदमी। बहोत कम ही ऐसे व्यक्ति मिले है जिन्हे में अद्भुत कह सकू। और शायद में गिन-चुनकर उंगलियों से गिनवा सकू उतने ही अद्भुत आदमी मुझे मिले है। यह भी कोई आश्चर्य से कम नहीं है क्योकि में अपने जीवन में सदा ही जितने लोगो को मिल सका हु शायद ही कोई मिल सका होगा। क्योकि में नित्य ही लोगो को मिलता रहता हु। पर कोई भी बहोत कुछ ज्यादा समय तक मेरे पास, मेरे साथ टिक नहीं सका हे। लगातार कोई मेरे संपर्क में नहीं रह सका हे, इसका एक कारन यह भी रहा है की मे कभी-कबार ही किसी को सामने से संपर्क करता हु या मिलता हु। में लोगो के आसपास होने पर कभी खास अच्छा अनुभव नहीं करता। इसका कारन जो मे समज पाया हु वो केवल इतना ही रहा की जितने आदमी मेरे नजदीक आये है, मेरे संपर्क मे आए हे वह आदमी अपने मन:स्थलसे ऊपर उठकर थोड़ा भी फेरबदल को तैयार नहीं होते थे। मुझे ज्यादातर ऐसे ही लोग मिले है जो मालूम तो आदमी होते है पर अंतःस्थल पर वह होते तो निर्जीव एवं निष्प्राण वस्तुओ के जैसे ही। क्योकि उनके पास खुद के कुछ नियम, समाज के बहोत से नियम, शाश्त्र निहित कुछ नियम और तो और परिवार के लिए कुछ नियम, दोस्ती पर लागू होते कुछ नियम और पता नहीं कौन कौन से नियम रहे है। नियम ही नहीं अपेक्षाए भी, की इन नियमो का पालन तो होना ही चाहिए। जैसे मानलो की नियम का सर्जन इन्सान ने नहीं बल्कि इन्सान का सर्जन नियमो के चलते हुआ हो। और हा मजे की बात तो यह हे की इस मानव समाज मे जहा हम वास करते हे, ऐसे ही नियमो की पूजा की जाती है, और अब हर बार यह घटना दोहराइ जाती है की पहले वह मेरे जीवन के किसी एक छोटे से हिस्से से वह प्रभावित हो जाते है और अपने आप ही मेरी जिंदगी के बाकि हिस्सों के बारे में खयाल बनाने लगते है की वरन ‘गुरुजी’ को ऐसा करना चाहिए ऐसा होना चाहिए, और हा ऐसा तो कतई नहीं होना चाहिए। वो मुझे भी उन नियमो के बंधनमे बांधने की कोशिश में लिप्त हो जाते है जिन नियमो के दायरे में वो अपने आपको बांधे हुए होते है। और वही सारे नियमो में उन्होने अपने बाकी सभी मित्रगण और परिवार के सदस्यो को भी बांधा होता है। जो नहीं बंध सकते थे उनकी यादी अगर आप जानना चाहे तो सिर्फ पूछ ले की कितने दोस्त अब दुश्मन बन चुके है या कितने रिश्ते टूट चूके है। और आप हैरान रह जाएँगे की जैसे ही नियम न मानने वाले लोग उनके संपर्क में आते है उनका रिश्ता बिगड़ जाता है। और अपने इन्ही नियम के तराजू में मुझे भी तोला जाया जाने लगता है और ऐसा ही नहीं की जो मुझे लोग मिले वही उतने ही ऐसे लोग हो बल्कि पूरा समाज आज एक दुसरे से ऐसी ही सारी अपेक्षा लगाए रखा है। और फिर यही मानस को अस्थिरता प्रदान करते हुए कई सारी मानसिक और कई बार शारीरिक व्यवधानों का प्रधान कारण बन जाता है। आज विज्ञान भी पूर्णतया इस बात के साथ संगत होते हुए मानता है की ६०% बीमारिया विचारो से ही हो रही है। जिस रास्ते पर हम चले जा रहे हे यह मानवजाति को कहा तक लिए जा रहा हे यह एक बहोत बड़ा प्रश्न बनते जा रहा हे।
पर यहाँ में स्पष्ट करना चाहता हु की में किसी नियमो मे कुछ काफी हद तक विश्वास नहीं रखता। क्योकि में अपने अनुभवो से उत्कृष्ट हुए पर अपने नियम खुद ही निर्मित करता हु क्योकि हर नियम या निर्णय के पीछे कोई स्पष्ट कारण रहता है। में तब तक किसी भी नियम को अपने पर लागू होने की अनुमति नहीं दे सकता जब तक की में उनके पुरे अस्तित्व को और उसके पीछे की व्यवस्था को समज न जाऊ। और रही बात मेरे नियमो को मानने की तो यह तो उस बात से भी कई ज्यादा और भी जटिल है क्योकि में बहोत जल्द अपने ही नियमो को तोड़ भी सकता हु और मुझे कोई दुःख नहीं लगता की अब वो नियम नहीं रहा पर हा एक बात हमेशा ही घटित होती रही है, की कोई पुराना नियम मरने से पहेले मेरे लिए एक नवीनतम अनुभवो का प्रदाता बना हो, एक नया अनुभव मुझे मिला हो और तभी उसी अनुभव के आधार पर कोई नवीन नियम जरुर ईजाद हो जाता है। अब वही नयी बात मेरा नया नियम बन जाता है।
यहाँ आपने देख ही लिया होगा की यह बात तो बहोत जटिल हो गई। समझ मे ही न आए ऐसी घटना घट गई। और क्यों न हो? यही बात तो अनुवेध की प्रथम पादान बनी थी. \1/
यह सब कह देने मात्र मे भी मुझे कोई आपत्ति नहीं क्यूंकी मेरी बुद्धिमता मे यह बात कभी ठीक ना बैठी की कहने मात्र से कुछ विलीन हो जा सकता है कुछ गवाया भी जा सकता हे। पर मैंने भी कई सारी कथाये-कहानिया इस विषय में बचपन से सुनी है की ऐसा भी हो सकता है इसी कारण से मेरा मन सदा डरता रहा है की कही मेरे कह देने मात्र से यह जो मुझे मिला है चला जाये तो भारी गड़बड़ हो जानी हे। में बचपन से ही बहोत संवेदनशील रहा हु और यह तो में अपने अनुभव से मजबूती के साथ कह सकता हु की संवेदनशील लोग ज़्यादातर डरपोक एवं जिद्दी किस्म के होते ही है। इस बात को की में भी ऐसा ही कुछ महसूस करता हु यह कहने में मुझे कोई लज्जा नही है। क्योकि यह भी विज्ञान मान चूका है की संवेदनशील लोग ही रचनात्मक एवं सृजनात्मक प्रवृति के हो सकते है। जितना ज्यादा संवेदनशील आदमी उतना ही ज्यादा सृजनात्मक हो सकता है। और तुमने भी तो जाना ही हे की बच्चो सा संवेदनशील और सृजनात्मक और किसी को भी तुमने न जाना होगा। में बड़ा ही भावुक किस्म का आदमी हु। में बिलकुल किसी भी काम आनेवाली बात को, लोगो को फायदा पहोंचाने वाली बात को छिपा कर नहीं रख सकता। और रखना भी तो क्यौं? मे नहीं तो कोई और सही। कुदरत तो माध्यम बनाकर इस बात को,अपने इस सृजन को और हसीन बनाने को उत्सुक हे, तो में ही क्यौं न इस सृजन के कार्य का भागी ना बनु? मेरी बचपन से एक कमजोरी रही है में मुझे ज्ञात या अनुभवित घटनाओ को अन्य के प्रति उद्घोषित किए बिना उन्हे लाभान्वित किए बिना इन सारी बातों को बांटे बिना नहीं रह सकता। इसीलिए “अनुवेध” की प्राप्ति के बाद में बड़ी मुसीबत में फस गया था। में ख़ामोश रहने लगा था इसी डर से की कही यह मेरे मुह से किसी के सामने निकल ही न जाये। कई दिनों तक में साधना में लीन रहेने की कोशिश में लगा रहा। मंत्रजाप में लीन रहने लगा। और यकीन करो मेरे पास और कोई रास्ता भी नहीं रह गया था। यह बात बडी स्पष्ट थी की मुझे भगवान, भक्ति, अगरबत्ती, प्राथना, आरती और मंत्रजाप, साधना एवं ध्यान इत्तर बातो से बढ़ी ही चीड़ रही है। मुझे यह सब बड़ा ही बचकाना लगा है। और “अनुवेध” मेरे साथ घटित हुआ यही मेरे लिए सानन्दाश्चर्य है। तो मंत्रजाप में मे डूब सकू इतनी लायकाट तो मेरी थी भी नहीं न मुझे समझ आता था की क्या और किस तरह से करना है। पर कैसे भी करके मेने लोगो से दूर जाने की कोशीशे शरु कर दी। क्यौंकी भूल मात्र से भी मे किसी के समक्ष बोल देना नहीं चाहता था। क्यौंकी में बहोत खुश ही नहीं डरा हुआ भी था और डर और अचंभेसे सम्मिलित आदमी सब से पहले आसपास किसी को खोजने की कोशिश जरुर करता है की किसी को तो में बता ही दू की बस अब छुटकारा ही हो इस परिस्थिति से। में निजाद पा सकू इस झंझट से। शुरू शुरू में मैंने भी ऐसा ही प्रयत्न करना चाहा था पर मेरे पास सही सही शब्द नहीं थे लोगो को समजाने के लिए। या यह कहू की शायद शब्दो मे नहीं तोला जा सकता था मेरे इन अनुभवो को। पर तभी मुझे ज्ञात हुआ की जिन कुछ व्यक्तिओ के बारे में मे सोच रहा था उन लोगो को कोई खास फिक्र भी न रही होगी। वो लोग तो इसी सोचमे डूबे हुए थे की जितना भी सिखा जा सकता है बस सीख ले इस आदमी से। और बड़ा जटका लगा मुझे। मे भी किस हद तक लालायित था उनके बारे मे सोचने को।
लेकीन यह भी अच्छा ही हुआ और इसी घटना की वजह से संपर्क में रहने के लिए इस्तेमाल होने वाले सारे संचार माध्यमो के इस्तेमाल से परे रहना मैंने शरु कर दिया। में दावे से कह सकता हु की यह मेरे जीवन के सब से कठिन निर्णयोंमे से एक रह चुका हे। क्यौंकी जो भी कुछ करीबी लोग जो मुझे नजदीक से जानते है वो इस बात को बड़े ही अच्छे से जानते है की में दो चीजो के बिना बिलकुल नहीं रह सकता। एक है मेरी पुस्तके और दूसरा मेरे मोबाइल फोन। चाहे आप इसे आदत ही कह ले। मुझे कोई खास तकलीफ नहीं है क्योकि में इससे भी आनंद का अनुभव करता था। मुझे न तो मंत्रो के जाप करने में कोई खास दिलचस्पी रही है न किसी शाश्त्रो में निहित योगिक विज्ञान को समजने की। वैसे भी यह सभी बहोत ही थका देने वाली एवं कठिन प्रक्रियाए मालूम होती हे।
पर अब मेरे साथ जो घटित हो रहा था में मजबूर था की में इसे समजू और पहली बार मुझे पछतावा हो रहा था की काश मैंने धार्मिक क्रियाकर्मों से दूरी न बनाए रखी होती तो मुझे कुछ न कुछ तो समज में आता। अंततः सिर्फ ये भी की यह सब हो क्या रहा है। क्योकि मेरी समज में कुछ नहीं आ रहा था। थोडा बहोत जो समज पा रहा था वो यह था की जो कुछ भी घट रहा हे वह कुछ सामान्य तो नहीं ही हो रहा हे। और मेरे पास कोई खास लोग भी तो नहीं थे जिनसे इस विषय के बारे में कोई सलाह ले सकु। या विचार विमर्श कर सकु। पर इन सारी घटनाओ के घटित होने के समय एक आदमी सदा मेंरे साथ रहा था।
एक बड़ा ही अद्भुत आदमी। बहोत कम ही ऐसे व्यक्ति मिले है जिन्हे में अद्भुत कह सकू। और शायद में गिन-चुनकर उंगलियों से गिनवा सकू उतने ही अद्भुत आदमी मुझे मिले है। यह भी कोई आश्चर्य से कम नहीं है क्योकि में अपने जीवन में सदा ही जितने लोगो को मिल सका हु शायद ही कोई मिल सका होगा। क्योकि में नित्य ही लोगो को मिलता रहता हु। पर कोई भी बहोत कुछ ज्यादा समय तक मेरे पास, मेरे साथ टिक नहीं सका हे। लगातार कोई मेरे संपर्क में नहीं रह सका हे, इसका एक कारन यह भी रहा है की मे कभी-कबार ही किसी को सामने से संपर्क करता हु या मिलता हु। में लोगो के आसपास होने पर कभी खास अच्छा अनुभव नहीं करता। इसका कारन जो मे समज पाया हु वो केवल इतना ही रहा की जितने आदमी मेरे नजदीक आये है, मेरे संपर्क मे आए हे वह आदमी अपने मन:स्थलसे ऊपर उठकर थोड़ा भी फेरबदल को तैयार नहीं होते थे। मुझे ज्यादातर ऐसे ही लोग मिले है जो मालूम तो आदमी होते है पर अंतःस्थल पर वह होते तो निर्जीव एवं निष्प्राण वस्तुओ के जैसे ही। क्योकि उनके पास खुद के कुछ नियम, समाज के बहोत से नियम, शाश्त्र निहित कुछ नियम और तो और परिवार के लिए कुछ नियम, दोस्ती पर लागू होते कुछ नियम और पता नहीं कौन कौन से नियम रहे है। नियम ही नहीं अपेक्षाए भी, की इन नियमो का पालन तो होना ही चाहिए। जैसे मानलो की नियम का सर्जन इन्सान ने नहीं बल्कि इन्सान का सर्जन नियमो के चलते हुआ हो। और हा मजे की बात तो यह हे की इस मानव समाज मे जहा हम वास करते हे, ऐसे ही नियमो की पूजा की जाती है, और अब हर बार यह घटना दोहराइ जाती है की पहले वह मेरे जीवन के किसी एक छोटे से हिस्से से वह प्रभावित हो जाते है और अपने आप ही मेरी जिंदगी के बाकि हिस्सों के बारे में खयाल बनाने लगते है की वरन ‘गुरुजी’ को ऐसा करना चाहिए ऐसा होना चाहिए, और हा ऐसा तो कतई नहीं होना चाहिए। वो मुझे भी उन नियमो के बंधनमे बांधने की कोशिश में लिप्त हो जाते है जिन नियमो के दायरे में वो अपने आपको बांधे हुए होते है। और वही सारे नियमो में उन्होने अपने बाकी सभी मित्रगण और परिवार के सदस्यो को भी बांधा होता है। जो नहीं बंध सकते थे उनकी यादी अगर आप जानना चाहे तो सिर्फ पूछ ले की कितने दोस्त अब दुश्मन बन चुके है या कितने रिश्ते टूट चूके है। और आप हैरान रह जाएँगे की जैसे ही नियम न मानने वाले लोग उनके संपर्क में आते है उनका रिश्ता बिगड़ जाता है। और अपने इन्ही नियम के तराजू में मुझे भी तोला जाया जाने लगता है और ऐसा ही नहीं की जो मुझे लोग मिले वही उतने ही ऐसे लोग हो बल्कि पूरा समाज आज एक दुसरे से ऐसी ही सारी अपेक्षा लगाए रखा है। और फिर यही मानस को अस्थिरता प्रदान करते हुए कई सारी मानसिक और कई बार शारीरिक व्यवधानों का प्रधान कारण बन जाता है। आज विज्ञान भी पूर्णतया इस बात के साथ संगत होते हुए मानता है की ६०% बीमारिया विचारो से ही हो रही है। जिस रास्ते पर हम चले जा रहे हे यह मानवजाति को कहा तक लिए जा रहा हे यह एक बहोत बड़ा प्रश्न बनते जा रहा हे।
पर यहाँ में स्पष्ट करना चाहता हु की में किसी नियमो मे कुछ काफी हद तक विश्वास नहीं रखता। क्योकि में अपने अनुभवो से उत्कृष्ट हुए पर अपने नियम खुद ही निर्मित करता हु क्योकि हर नियम या निर्णय के पीछे कोई स्पष्ट कारण रहता है। में तब तक किसी भी नियम को अपने पर लागू होने की अनुमति नहीं दे सकता जब तक की में उनके पुरे अस्तित्व को और उसके पीछे की व्यवस्था को समज न जाऊ। और रही बात मेरे नियमो को मानने की तो यह तो उस बात से भी कई ज्यादा और भी जटिल है क्योकि में बहोत जल्द अपने ही नियमो को तोड़ भी सकता हु और मुझे कोई दुःख नहीं लगता की अब वो नियम नहीं रहा पर हा एक बात हमेशा ही घटित होती रही है, की कोई पुराना नियम मरने से पहेले मेरे लिए एक नवीनतम अनुभवो का प्रदाता बना हो, एक नया अनुभव मुझे मिला हो और तभी उसी अनुभव के आधार पर कोई नवीन नियम जरुर ईजाद हो जाता है। अब वही नयी बात मेरा नया नियम बन जाता है।
यहाँ आपने देख ही लिया होगा की यह बात तो बहोत जटिल हो गई। समझ मे ही न आए ऐसी घटना घट गई। और क्यों न हो? यही बात तो अनुवेध की प्रथम पादान बनी थी. \1/
क्रमशः ...
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